ऐक खत जिसने करबल मचादी
सन 60 हि. में जब यजीद तख्ते हुकूमत पर बैठा, हज़रत इमाम हुसैन रदियल्लाहु अन्हु ने मदीना छोड़कर मक्के में रहाइश इख़्तियार कर ली। यज़ीद की हुकूमत एक नापसंदीदा हुकूमत थी, ज़बरदस्ती लोगों से यज़ीद के नाम पर बैअत ली जा रही थी। आखिरकार अवाम में यज़ीद की हुकूमत के खिलाफ बगावत की लहर दोड़ने लगी। उम्मत ने अपने माथे की आंखों से देख लिया था कि यज़ीद किसी तरह से भी मुस्लिम हुकूमत की बागडोर संभालने का अहल नहीं। मसअला ये था कि इस सिच्वेशन में मुसलमान क्या करें? यज़ीद के पास पावर था और निहत्ते मुसलमान हुकूमत से टकरा नहीं सकते थे। उनके पास सिर्फ एक ऑपशन था कि लोग यज़ीद की बैअत तोड़कर इमाम हुसैन के हाथ पर बैअत हो जाएँ,
मगर सवाल ये था कि इस काम का आगाज़ कैसे हो? और क्या हज़रत इमाम हुसैन उस तख्ते खिलाफत पर बैठने के लिए आमादा भी होंगे, जिस तख्ते खिलाफत को उनके बड़े भाई हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने छोड़ दिया था। यज़ीद के खिलाफ बगावत का शोर बढ़ता जा रहा था, ख़ास तौर पर कूफा में शीआने अली की एक बड़ी तादाद हुकूमत के खिलाफ कमरबस्ता थी। वह हर कीमत पर यज़ीद से जान छुड़ाना चाहते थे, बहुत कुछ गौर करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचे कि पहले इस सिलसिले में हज़रत इमाम हुसैन से राब्ता करना चाहिए
और उनके सामने अपना मतलब बयान कर देना चाहिए, फिर देखते हैं कि उनकी तरफ से क्या रद्दे अमल ज़ाहिर होता है। उस ज़माने में खतो किताबत ही राब्ते का एक ज़रिया थी, चुनान्चे अहले कूफा के तमाम मोमेनीन व मुस्लेमीन, शीआने अली की तरफ से एक ख़त तैयार किया गया। उनमें सुलेमान • बिन सईद, मुसैय्यब बिन नजिबा, और हबीब - बिन मज़हर नुमाया लोगों में से थे। खत का - मजमून इस कुछ तरह से थाः
कूफा वालों का खत
"अम्मा बाद, उस अल्लाह के लिए हम्द है जिसने आपके बे रहम सरकश दुश्मन को तोड़ दिया जिसने इस उम्मत का हाल खराब कर दिया था और उसका मुआमला ज़बरदस्ती अपने हाथों में ले लिया था और उसका माल छीन लिया था और उम्मत की मर्जी के बगैर उस पर अपनी हुकूमत जमा ली थी, फिर उम्मत के बेहतरीन लोगों का कत्ल करवा दिया और उम्मत के बद्तरीन लोगों को आज़ाद रखा और अल्लाह का माल व दौलतमन्दों के बीच लुटा दिया। उसके लिए दूरी और महरूमी हो जैसे कौमे सुमूद धुत्कारी गई" हमारा कोई इमाम नहीं, लिहाजा आप तश्रीफ लाएँ, उम्मीद है कि अल्लाह तआला हमें आप के ज़रिये हक पर इकट्ठा कर दे। ये भी मालूम हो कि नुमान बिन बशीर (सहाबी रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) हुकूमत के महल में हैं, हम न तो उनके पीछे जुमा की नमाज़ पढ़ते हैं और न ही ईद की। अगर आपकी आमद यकीनी हो हम उन्हें यहाँ से निकालकर मुल्के शाम वापस भेज दें, वस्सलाम व रहमतुल्लाह अलैक।
इस ख़त के एक एक लफ्ज़ से बगावत की बू नज़र आ रही है और अहले कूफा अपनी मज़्लूमियत, बेबसी और बेचारगी पर रोये जा रहे हैं और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के हाथ पर बैअत होने के लिए तड़प रहे हैं। ये ख़त इमाम हुसैन के पास मक्के में 10 रमज़ान 60 हि. को पहुंचता है। अभी दो ही दिन गुज़रे थे कि पचासों खुतूत फिर पहुंचते हैं और हर खत दो-दो चार-चार लोगों की तरफ से था। एक ख़त का मज़मून ये थाः
दुसरी खत
"बिस्मिल्लाहिर्रहमा निर्रहीम, मोमेनीन व मुस्लेमीन के शीआने अली की तरफ से हुसैन इब्ने अली के नाम.......... अम्मा बाद" आप तश्रीफ लाएँ, क्योंकि लोग आपकी आमद के मुन्तज़िर हैं। आपके अलावा किसी को इमाम मुन्तख़ब करने की उनकी राय नहीं है। जल्द अज़ जल्द तश्रीफ लाएँ, वस्सलाम अलैक।
इस तरह सैंकड़ों खुतूत बिलादे इराक से मुसलसल आ रहे थे। आखिरकार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उन सारे खुतूत का एक जवाब तहरीर किया जिसका मज़मून ये थाः
इमामे हुसैन का खत
"बिस्मिल्लाहिर्रहमा निर्रहीम हुसैन इब्ने अली की तरफ से जमाअते मोमेनीन व मुस्लेमीन के नाम, अम्मा बाद.......... हानी और सईद तुम्हारे खुतूत लेकर आए, तुम्हारे कासिदों में आने वाला ये दोनों आखरी कासिद थे, मैंने वह सब कुछ समझ लिया जो तुम लोगों ने अपना माजरा सुनाया और तुम्हारे मुअज़्ज़ लोग की ये बात किः "हमारा कोई इमाम नहीं, लिहाजा आप आँए, उम्मीद है कि अल्लाह तआला आप के ज़रिये हमें हक व हिदायत पर जमा करे" तो मैंने अपने चचाज़ाद भाई, अपने अहले बैत के भरोसेमन्द शख्स की (हज़रत मुस्लिम बिन अकील रदियल्लाहु अन्हु) को तुम लोगों की तरफ भेज दिया है और हे मैंने उन्हें हुक्म दिया है कि वह जाकर तुम्हारे हालात व मुआमलात और तुम्हारी राय से मुझे बाख़बर करें। अगर उन्होंने मुझे इत्तेला दी कि
● तुम्हारे मुअज़्ज़ेज़ीन और साहिबे फजीलत और दानिश्मंद लोगो की राय मुत्तफिक है जैसा कि हैं तुम्हारे कासिद मेरे पास आए थे और मैंने तुम्हारे
● खुतूत पढ़े थे... तो मैं बहुत जल्द तुम्हारी तरफ आउंगा, इन्शाअल्लाह। मेरी ज़िन्दगी की कसम ! इमाम तो सिर्फ वही है जो अल्लाह की किताब पर अमल करने - वाला, इंसाफ कायम करने वाला, हक के साथ - बदला देने वाला और खुद को अल्लाह के सुपुर्द करने वाला हो। वस्सलाम"
जैसा के सब जानते हैं कि हज़रत मुस्लिम बिन अकील ने पहले पहल इमाम हुसैन को ख़त लिख भेजा कि यहां सब खैरियत है, आप जल्द तश्रीफ लाएं, अहले कूफा शिद्दत से आपके मुन्तज़िर हैं, लेकिन कुछ ही दिनों में हालात ने करवट ली। हुकूमत के डन्डे बरसने लगे और कूफी अपनी बद्अहदी और गद्दारी की वजह से तारीख की बद्तरीन और सियाह मिसाल बन गए। हज़रत मुस्लिम बिन अकील का वह एक ख़त जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को करबला की खाक तक ले आया औ शहादत का एक ऐसा वाकिया रूनुमा हुआ जिसने बातिल को हमेशा के लिए रुस्वा कर दिया और क्यामत तक के लिए हक का बोल बाला हो गया।
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